युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक
नियम पाठ - भाग 4
“जवाब दो मुझे, कहाँ लापता हो गई थी तुम?” अंबिका को चुप देखकर रूपसी
ने दुबारा पूछा। “माता अजरा के सामने मैंने
नहीं बताया कि मैं तुम्हें ढूँढने के फेरे में उनकी दृष्टि में आ गई थी। परंतु तुम्हें मुझे यह
बताना होगा।”
“इस अक्षया के कारण मैं पहले ही बहुत
कुछ सुन चुकी हूँ माता अजरा से, अब तुम और गुस्सा मत करो मुझ पर। मैं बस ऐसे ही उन
सिपाहियों की गतिविधियाँ देखने लगी थी। मुझे नहीं पता था कि वो तुम्हें ही नुकसान
पहुँचाने आए हैं, अन्यथा उनको तो मैं वहीं
पर... अच्छा छोड़ो तुम्हारा घाव
अब कैसा है?”
“वो ठीक है, पहली बार नियम तोड़ा और सब
को मालूम भी हो गया।” रूपसी ने मुंह बनाया।
“परंतु तुम्हें कैसा लगा यह
बताओ? घाव लेकर भी तुम्हारे
मुख पर प्रसन्नता दिखाई प्रतीत हो रही हो।” अंबिका की बात पर रूपसी
मुसकुरा दी।
“तुमने सही कहा था, यहाँ से बाहर जाने का आनंद
ही कुछ अलग है,” रूपसी इतरा के बोली।
“क्या बात है थोड़ा खुल के कहो, मैंने सुना तुम्हारे प्राण भी
किसी मनुष्य ने ही बचाए थे। कौन था और कैसा था वो?”
“हाँ, उसका नाम…” रूपसी अंबिका को बता ही
रही थी कि बाकी तीनों भी, जो उनके बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रही थी, उनके पास
पहुँच गई।
“रूपसी…” अक्षया चिल्लाते हुए आई और
रूपसी से लिपट गई। तुम्हारा घाव कैसा है अब, दर्द तो नहीं हो रहा है।” अक्षया ने उसके कंधे
को छू के पूछा।
“आउच।” रूपसी के मुंह से निकाला। “पगली, क्या ऐसे पूछते हैं?”
“दुखा क्या? गलती हो गई क्षमा कर दो
मुझे।” अक्षया झट से पीछे होकर
बोली।
“हा हा हा…” रूपसी हंस दी। “कुछ नहीं हुआ है मुझे, यह अब ठीक हो चुका है। “उसने अक्षया को आगे बढ़कर
फिर से गले से लगा लिया।
“दुष्ट…” अक्षया ने इतना ही कहा।
अंबिका जो अब तक उसे घूर रही थी, उसने उसका हाथ पकड़ कर
उसका चेहरा अपनी ओर घुमाया। “क्यों बताया तूने माता अजरा को?”
“तो और क्या करती मैं? छिपाने का कोई रास्ता
थोड़े बचा था।”
“माता अजरा के सामने तूने
मुझे फँसाया, तूने अपना क्यों नहीं
बताया कि तू कब-कब और कितनी बार यहाँ से
बाहर गई है?” वह उस पर बरस पड़ी थी। “अवसर सही नहीं था अन्यथा
तेरा भेद भी मैं खोल सकती थी।”
“किसने देखा है मुझे बाहर
जाते? मुझे भी क्या स्वयं के
जैसा समझा है तूने? वैसे बता दूं, तुम्हारे जैसे घटिया शौक
नहीं मेरे अंबिका।” अक्षया भी तैश में आ गई थी।
“ओहो, तुम दोनों लड़ाई मत
करो नहीं तो मुझे लगेगा कि सारी
मेरी गलती है।” रूपसी ने बीच-बचाव करना चाहा परंतु।
“क्या… क्या कहा तुमने? कौन से घटिया शौक हैं मेरे?”
“जाओ, मेरा मुंह मत खुलवाओ।”
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