युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक
भेद
भोर भी हो गई थी एवं उदीष्ठा की राजधानी सूर्यनगरी भी अब समीप आ गई थी। रास्ता
घने जंगलों से निकल कर खुले मैदान में आ चुका था। भोर की लाली क्षितिज पर दिखने
लगी थी। वेग थोड़ा आगे बढ़ कर एक स्थान पर रुक गया और आस पास देखने लगा यह निश्चिंत करने के
लिए कि वह सही स्थान पर पहुँचा है या नहीं। क्योंकि आश्रम छोड़ने से पहले जैसा तय
हुआ था, उसके अनुसार सभी भोर होने पर इसी स्थान पर मिलेंगे और आगे का रास्ता साथ में तय करेंगे। परंतु
वहाँ पर कोई नहीं था।
“स्थान तो सही है फिर अभी तक तो
उन्हें पहुँच जाना चाहिए था।” वेग आने वाले रास्ते को देखते हुए सोचने लगा। उसने दूसरे अश्व के उपर की
रस्सियों के साथ तारकेन्दु के हाथ पर बँधी रस्सियाँ भी हटा दी थी।
“थोड़ा विश्राम कर लो।” वेग ने उसे नीचे खींचकर
कहा, वेग की दृष्टि अभी भी रास्ते पर ही
टिकी थी।
“पता नहीं कितनी हड्डियाँ
टूटी हैं।” तारकेन्दु खड़ा होने का
प्रयास करते हुए बोल रहा था। “वेग, कृपा करके पानी पिलो दो थोड़ा।”
तब तक सामने से एक बग्घी आती हुई दिखाई देने लगी, वेग को
समझते देर नहीं लगी कि वह मेघ ही था। वेग पानी की थैली उसकी ओर उछाल कर मेघ की
प्रतीक्षा करने लगा। निकट आते हुए मेघ को
थोड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उसे वेग की बग्घी
कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। मेघ ने बग्घी को वेग के पास लाकर रोक दिया और
नीचे उतरकर वेग के पास पहुँचा।
“वेग तुम्हारी बग्घी कहाँ
है?” वह अभी भी इधर-उधर दृष्टि दौड़ा रहा था।
“उसको इसके बारातियों ने
जला दिया।” वेग ने तारकेन्दु की ओर
इशारा करते हुए हंसकर कहा।
“तो इसका अर्थ है शत्रुओं को हमारी इस योजना की भनक
हो गई थी।”
“तो क्या तुम्हें किसी ने
रोकने का प्रयास नहीं
किया?” वेग ने पूछा।
“नहीं, बिल्कुल भी नहीं।”
कुछ समय के बाद दुष्यंत, विधुत और प्रताप भी आते
हुए दिखाई देने लगे, वेग खड़ा होकर उत्सुकता से उनके पास आने की प्रतीक्षा करने
लगा। तारकेन्दु भी यह जानने को
उत्सुक था कि उसके साथी
सुरक्षित हैं कि नहीं? तीनों अब समीप आ गये थे, प्रताप और विधुत के चेहरों
को देखने से ही वेग कुछ आशंकित हो गया था। तीनों के अश्वों से उतरते ही वेग उनकी ओर
बढ़ा।
“विधुत,” जब किसी ने अपने से कुछ
नहीं बताया तो वेग ने विधुत की ओर देखते हुए कहा, वेग की आँखो में प्रश्न था। विधुत ने उत्तर में अपना
सर ना के इशारे में हिला दिया।
“सब मारे गये वेग।” इस बार प्रताप ने दुख
प्रकट करते हुए कहा। “हमें पहुँचने में थोड़ी देर हो गई और हमारे
पहुँचने से पहले ही...” इतना कहकर वह चुप हो गया।
“दुष्यंत तुम्हें
किसने आहत किया?” वेग की दृष्टि अब दुष्यंत
के घावों पर गई थी।
परंतु दुष्यंत ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, अभी तक वह
बस तारकेन्दु को घूरे जा रहा था। वह आगे बढ़ा और कोई कुछ समझ पता उससे पहले ही
उसने तारकेन्दु को गले से पकड़ कर उपर उठा लिया।
“सच क्या है, मुझे बताओ।” वह उस पर चिल्लाया। “यह सब क्या हो रहा है? कौन है ये रूपसी और कहाँ
रहती है? सब बताओ मुझे।”
तारकेन्दु उसकी पकड़ में छटपटाने लगा, उसका दम घुट रहा था और वह
सहायता के लिए वेग की ओर देख रहा था।
“दुष्यंत...” वेग चिल्लाया और दौड़ कर
उसके पास पहुँचा। “छोड़ो इसे, इसे जो पता है यह पहले ही
हमें बता चुका है।” परंतु दुष्यंत उसे नहीं
छोड़ रहा था।
“दुष्यंत रुक जाओ।” वेग दुष्यंत पर फिर
चिल्लाया। उसने अपना हाथ बढ़ाकर उसके
हाथ को तारकेन्दु के गले से नीचे झटक दिया। तारकेन्दु नीचे गिर गया और अपनी साँसे
संभालने का प्रयास करने लगा। “बुद्धि काम नहीं कर रही क्या तुम्हारी? क्या कर रहे हो यह?”
“तुम क्या कर रहे हो वेग, तुमने क्या किया?” दुष्यंत भी क्रोध से वेग
पर चिल्लाने लगा। “एक चुड़ैल पर भरोसा कर के
उसे जाने दिया, तुम्हारी मति मारी गई थी
या कुछ और…"
“दुष्यंत बहुत हो
गया, तुम जानते भी हो कि तुम
क्या कह
रहे हो?” वेग ने उसका विरोध किया।
“भली भाँति जानता हूँ
मैं, बस तुम्हें दर्पण दिखा रहा हूँ। तुम्हारे कारण ना जाने कितने निर्दोष अपने
प्राण गवाँ चुके हैं, क्या तुम्हे थोड़ा भी अहसास है अपनी भूल का?” दुष्यंत बोला।
“शांत हो जाओ दुष्यंत,
इस प्रकार की वाणी और व्यवहार
हमें शोभा नहीं देता।” प्रताप ने बीच में आकर कहा।
“क्या मुझे कोई बताएगा कि
मैंने क्या कसूर किया है?” वेग ने झुँझलाकर पूछा।
“उस चुड़ैल ने उन सभी को
मार डाला।” दुष्यंत उँचे स्वर में बोला। “अब कहो उस चुड़ैल को छोड़
कर तुमने क्या सही किया है? उनको तो अपने नगर पहुँचने का अवसर तक नहीं
मिला। उनका हश्र तुम्हें अपनी
आँखों से देखना चाहिए था, किसी एक सिपाही का शव भी साबुत नहीं थी
वहाँ पर। तुम्हारी आत्मा तक काँप
उठती इतनी निर्दयता से मारा
है उनको
तुम्हारी उस चुड़ैल ने।”
“ये सच नहीं हो सकता, वह ऐसा... ऐसा नहीं कर सकती... ”
दुष्यंत की बात ने वेग को भीतर तक आघात दिया था। “प्रताप, विधुत, ये क्या कह रहा है...? तुम बताओ क्या देखा तुमने?” वेग ने उनकी ओर मुड़ के
पूछा।
“मैंने अपनी आँखों से देखा है वेग।” दुष्यंत ने जवाब दिया वेग
के प्रश्न का। “हाँ, मैंने देखा उसे उन
लोगों को चीरते हुए परंतु मैं थोड़ा विलंब से पहुँचा अन्यथा मैं उसके कटे पंख लेकर
तुम्हारे सामने खड़ा होता।”
“नहीं दुष्यंत ऐसा नहीं हो
सकता,” वेग को विश्वास नहीं हो पा
रहा था। “तुम्हें भ्रम हो सकता है, वो कोई और होगी।”
“यही तुम्हारी समस्या है,
तुम अपनी भूल स्वीकार करना
ही नहीं
चाहते। रूपसी...” यह नाम
दुष्यंत ने थोड़ा उँचे स्वर में लिया था। “यही
नाम था ना उस चुड़ैल का? कितनी सहजता से एक तपोवनी
को मूर्ख बना के निकल गई, है ना?” वेग
निरुत्तर हो गया था।
“दुष्यंत
अब जो बीत गया है उसे जाने दो, जैसा
गुरु शौर्य ने कहा था हमें शीघ्र ही सूर्यनगरी
के लिए निकलना चाहिए।” विधुत ने उसे समझाते हुए
कहा।
“नहीं
विधुत,
रुको एक क्षण।” इतना
कहकर वह फिर से वेग की ओर पलटा। “वेग
उसने तुम्हें मूर्ख बना दिया या बात कुछ और है?” वेग अब
भी शांत खड़ा था।
“सुना
है चुड़ैल अच्छे अच्छों को अपने रूप जाल में फँसा सकती हैं,” दुष्यंत
बोले जा रहा था। “कहीं
ऐसा तो नहीं कि उसकी सुंदरता ने तुम्हारी बुद्धि पर आवरण डाल दिया था? बोलो
वेग,” उसने
वेग से पूछा। “चुप
क्यों हो? क्या
वह इतनी सुंदर थी कि उसने तुम्हें तुम्हारे कर्तव्य पथ से
भी डिगा दिया। तपोवनी
वेग,
जिसे एक साधारण सी चुड़ैल मूर्ख बना के निकल गई।” दुष्यंत क्रोध में था
परंतु उसके आरोप वेग को भीतर तक पीड़ा दे रहे थे।
“दुष्यंत, शांत हो जाओ,
वेग को दोष देने से क्या कुछ बदल जाएगा अब?” मेघ बोला। तब तक प्रताप दुष्यंत को
हाथ पकड़ कर वहाँ से दूर ले गया और समझाने लगा।
दुष्यंत अपने मन की
भडास निकाल कर चला गया था परंतु वेग को अपने उपर उन सब की मृत्यु का भार महसूस हो
रहा था। उससे खड़ा नहीं रहा जा रहा था वह घुटनों के बल नीचे बैठ गया, उसे विश्वास
नहीं हो पा रहा था कि रूपसी ऐसा कर सकती है। उसने अपनी आँखें बंद कर
ली और उसके चेहरे को स्मरण करने लगा। उसकी आँखों के सामने रूपसी का वो चेहरा आया
जब वह वेग की भुजाओं में मूर्छित थी। उसकी आँखें बंद और थोड़े
से बाल उसके चेहरे पर, निष्कपट, किसी भी प्रकार का छल अनुभव नहीं हुआ था वेग को। वेग की आँखों के सामने वह
सारा घटनाक्रम घूम गया परंतु उसे कहीं कुछ भी ऐसा स्मरण नहीं आ रहा था जो उसे
रूपसी पर संदेह करने को बाध्य करें।
“वेग, मन को दुखी मत करो, जो कुछ भी हुआ
उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। ना तो तुम, ना हम, कोई कुछ नहीं कर सकता था।” विधुत ने उसके कंधे पर हाथ
रख कर कहा।
“विधुत,
अगर सब मेरी भूल के
कारण हुआ है तो मैं पश्चाताप करने के लिए तैयार हूँ, परन्तु
इस से पहले मैं स्वयं सच का पता लगाना चाहता हूँ।” वेग ने
अपने मन में दृढ़ निश्चय किया और खड़ा हो गया, वह
दुष्यंत की ओर बढ़ा।
“दुष्यंत,
अगर रूपसी ने अपनी मर्यादा तोड़ कर इस हत्याकांड को अंजाम दिया है तो मैं स्वयं
उसे ढूँढ कर तुम्हें सौंप दूंगा, तुम अपने हाथों से उसे दंड देना।"
“वेग
मुझे क्षमा कर दो, मैं क्रोध में बहुत कुछ अधिक कह गया। लेकिन तुम्हे यह तो समझना चाहिए
की उन सिपाहियों को इतनी दर्दनाक मौत कौन दे सकता है।"
"परंतु
पहले हमें सच जानना चाहिए कि वह चुड़ैल रुपसी थी या कोई और?”
"मैं
अपनी आँखो से देख कर आया हूँ वेग। तुम्हे मुझ पर भी तो भरोशा करना चाहिए।"
वेग
के पास इस समय कोई जवाब नहीं था उसने कहा। "चलो एक बार प्रतिज्ञा दोहराते हैं।
वेग
के कहने पर सभी एक दूसरे के समीप आ खड़े हुए
"सज्जन
से विनम्रता" सबसे पहले वेग ने कहा।
"और
दुर्जन को सबक," यह दुष्यंत ने कहा था।
"इससे
समझौता," प्रताप ने कहा।
"कभी
नहीं, कभी नहीं" विधुत ने कहा।
"स्वयं
के अंत तक" मेघ ने प्रतिज्ञा का आख़िरी वाक्य पूरा किया।
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