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अध्याय 16 - महारथी विराट - भाग 1

युगान्धर-भूमि ग्रहण की दस्तक महारथी विराट 1/5 “ प्रणाम महारथी विराट ।”  वेग ने कक्ष में प्रवेश करते के साथ ही कहा तो विर...

अध्याय 15 - सीमा के पार

युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक

सीमा के पार

सुरैया ने रुपसी के कक्ष में प्रवेश किया तब तक रुपसी जाग चुकी थी। सुरैया बिना उससे आँखें मिलाए, उसके पास आ बैठी और उसके घाव को देखने लगी। वह रुपसी के लिए थोड़ी चिंतित और उससे नाराज़ भी दिखाई दे रही थी।
“मैं ठीक हूँ अब मां।”
मुझसे बात मत करो तुमअपनी सखी कहती हो ना तुम मुझे?” सुरैया उससे मुंह फेर के बैठ गई थी
तुम हो मांतुम नाराज़ मत हो मुझसे। तुमसे कभी तो कुछ नहीं छिपाया, तुम जानती हो ना…” रूपसी ने लेट हुए ही मासूमियत से कहा था
तुम्हारा भरोसा करूँतुम वहाँ मृत्यु के मुंह में जा पहुँची और मुझे सूचना भी नहीं कि तुम कब अपना वचन भूल चुकी हो।”
मां, हमने जानबूझकर यह नहीं किया है।”
अब तुम मुझसे झूठ भी बोलना सीख गई हो?” सुरैया ने थोड़ा नाराज होकर उसकी ओर देखा। “मेरे इतना समझाने के बाद भी…”
तुम्हारी सौगंध मांयह पहली बार हुआ था और वो भी अनजाने में।” रूपसी उठ के बैठ गई थीउसने सुरैया के दोनों कंधों को पकड़ कर अपनी ओर घुमाया
देखो इधर मांतुमसे झूठ बोल के पाप लूंगी क्यामेरा विश्वास करो अनजाने में ही मैं विधारा के बाहर चली गई थी।”
और अनजाने में ही विधारा से इतना दूर भी चली गईहै नाक्या लेने गई थी तुम वहाँ?
अब तुम बोलने दो तो तब ना।” सुरैया ने फिर से चेहरा दूसरी ओर कर लिया। “बोलूं?”
सीधे बैठो पहले। सुनो… मैं और अक्षया झरने पर गये थेतापी नदी के झरने पर। वही जो हमारी पश्चिम सीमा के एकदम अंतिम छोर पर है।”
क्यों?
अरे बस ऐसे ही मांसब ने देखा था उस झरने को और हमसे भी कई बार कहा था चलने को। इन दिनों सुना है बहुत सुंदर दिखाई देता है तो अक्षया को लेकर मैं वहाँ गई थी। अब वो तो हमारी सीमा के भीतर ही है नामुझे लगा इसमें तो कोई आपत्ति नहीं है।”
आगे बताओ।”
पूरी बात सुनोबीच में मत बोलो।” रूपसी तुनक कर बोलीफिर मुस्कुरा “रोमांचक किस्सा है।”
*
साँझ का समय था, रूपसी और अक्षया दोनों ने तापी नदी के झरने के पास पहुँच कर आराम की साँस ली जैसे बहुत समय से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी
“चलो…” रूपसी यह कहकर आगे बढ़ी
साँस तो ले लोझरना कहीं भागे थोड़े जा रहा है।” अक्षया बोली
अच्छा यह बताओ हमारा क्षेत्र कहाँ तक है?”
क्यों घबराती हो? यह पूरा हमारा ही क्षेत्र है और अगर गलती से तुम बाहर चली भी गई तो कौन है हमें यहाँ देखने वाला?”
बात किसी के देखने की नहीं है अक्षया, मैने माँ को वचन दिया है और मैं उसे तोड़ना नहीं चाहती हूँ।”
“ठीक है, छोड़ो इन बातों को और झरने को देखोकैसा मखमल सा लग रहा है।”
“अरे पगली, अब यहाँ आने के बाद भी क्या बस दूर से ही देखेंगे। तुम अपने आप को कैसे रोक पा रही हो इस झरने के पानी में भीगने से?” रूपसी पंख फैलाकर कूद गई झरने की ओर और गिरते हुए पानी के इर्द गिर्द लहराने लगी। अक्षया को वहीं खड़ा देख वह वापस मुड़ के आई, उसकी मंशा को समझ अक्षया एक कदम पीछे हुई
नहींनहीं… रूपसी रुको।” मना करने के बावजूद रूपसी ने झपटते हुए उसका हाथ थामा और झरने की ओर लहरा गईअक्षया भी बिना क्षण गवाएँ चुड़ैल रूप में आ गई थी
दोनों उड़ती हुई झरने के पानी के साथ अठखेलियाँ करने लगी। कभी गिरते पानी की उलटी दिशा में उड़ती और फिर वापस नीचे गिरते हुए पानी के साथ लहरा के नीचे गिरने लगती। दोनों कुछ देर तक यूँही गिरते हुए पानी से खेलती रही। उसके बाद रूपसी एक चट्टान पर आ खड़ी हुई थी जहाँ झरने का पानी उसके उपर बरस रहा था और अक्षया भी नीचे बहते हुए पानी में उतर गई थी
रूपसी आओ यहाँबहुत अच्छा लग रहा है इस पानी में।” अक्षया ने रूपसी को बुलाना चाहा परंतु झरने के शोर में उसका स्वर खो गया था
मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है अक्षया।” वह दोनों हाथों को फैला के झरने के पानी में भीगते हुए बोली। “मुझे भीगने दो इस पानी में, मेरा मन अभी भरा नहीं है। इस पानी से उठती यह महक मुझे बहुत आराम दे रही है, कुछ देर मुझे यूँही खड़े रहने दो।” रूपसी ने अपनी आँखें बंद कर ली थी, पानी की बुंदे उसे उपर से नीचे तक भिगो दे रही थी
रूपसी…” अक्षया अचानक ही चिल्लाई परंतु रूपसी के कान तक उसकी पुकार नहीं पहुँच सकी
रूपसी हट जाओ वहाँ से।” वह बिना क्षण गवाएँ चिल्लाते हुई रूपसी की ओर उड़ी। उसकी दृष्टि उपर थी और चेहरे पर भय था परंतु रूपसी अब भी अपने में ही खोई हुई थी
बड़ा सा वह पेड़ के तने का टुकड़ा रूपसी की सीध में उपर से नीचे गिरने वाला था। किसी चट्टान से लग के वह रुक गया था परंतु पानी के हल्के से बहाव से भी वह लुढ़क सकता था और उसके बाद वह वजनी टुकड़ा पूरी गति के साथ नीचे आने वाला था। रूपसी इस बात से बिल्कुल अंजान थी कि तभी वह टुकड़ा अपने स्थान से मुक्त हो गया
“रुपसिईईईई……” अक्षया चिल्लाई। वह इतना निकट आ गई थी जहाँ से उसकी आवाज तो रूपसी तक पहुँच सकती थी परंतु वह रूपसी को वहाँ से हटा नहीं सकती थी
रूपसी का चेहरा अभी भी उपर की ओर था, आवाज के साथ जैसे ही उसने चौंक कर आँखें खोली, सामने उसे अपनी मौत दिखी। यह एकदम अंतिम क्षण था जहाँ से भागना असंभव था। शरीर की रक्षा प्रवृत्ति के व्यवहार के कारण बस रूपसी ने अपने दोनों हाथों को चेहरे के सामने कर लिया। अक्षया की हिम्मत नहीं थी यह देखने कीउसकी आँखें बंद हो गई थी
परंतु रूपसी ने महसूस किया कि वह अब भी सुरक्षित है। उसने धीरे से आँखें खोली तो पायाउसके चेहरे से बस एक हाथ दूरी पर वह भारी भरकम लट्ठा आकर ठहर गया था, रूपसी तुरंत उसके नीचे से हट गई। उसने अक्षया की ओर देखा वह भी दूर खड़ी आश्चर्य से यह देख रही थी
“यह कैसा चमत्कार है?”
मुझे नहीं मालूम।” रूपसी अब तक हक्की बक्की सी देख रही थी
वह तने का टुकड़ा जैसे हवा में ठहरा हुआ था। यह कैसे संभव हुआ वो दोनों यह जानने को उत्सुक थी परंतु गिरते हुए पानी ने उस लकड़ी के उपरी हिस्से को छुपा रखा था। दोनों उड़ के वहाँ पहुँची और जब निकट से देखा तो उन्होंने पाया कि उस लकड़ी के चीरे में कोई माला फँसी हुई थी और उस माला का दूसरा हिस्सा एक चट्टान के उभरे हुए कोने में अटका हुआ था
“यह कैसे संभव हो सकता है। इतने भारी वजन को इस माला ने कैसे संभाला? मैंने देखा था यह बहुत गति से नीचे आया था।” अक्षया बोली।
मेरी सहायता करो।” रूपसी ने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा
अक्षया ने उड़ते हुए ही लकड़ी को थोड़ा उपर उठा लिया जिससे वह कंठ माला चट्टान पर ढीली हो गई। रूपसी ने पहले चट्टान में से और फिर उस लकड़ी में से माला को निकाल लियाइसी के साथ अक्षया ने उस लकड़ी को छोड़ दिया। लकड़ी का भारी लट्ठा नीचे पानी में बह गया
यह सच में चमत्कार ही था अक्षया।”
चमत्कार तो सही है परंतु तुमने मेरे प्राण जो सूखा दिए थे उसका क्यामेरी पुकार भी तुम नहीं सुन रही थी।” अक्षया गुस्से में थी
रूपसी उस माला को अपने हाथों में लिए अब भी आश्चर्य से देख रही थी। “यह किसकी कंठ माला हो सकती है?”
मुझे क्या मालूमचलो अब यहाँ से।” अक्षया वापस मुड़कर उड़ने लगी। “मेरा हृदय अब तक भी धड़क रहा है और तुझे इस माला की चिंता हो रही है।”
*
रुपसी ने अपने पास से वह माला निकाल कर सुरैया के सामने रख दी। “देखो यह है वो माला।”
सुरैया ने उसे रोकते हुए कहा। “रुपसी, अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगी। कुछ हो जाता…”
“आगे सुनो तो पहले। वहीं पर हमने अंबिकावाशवी और ईशानी को सीमा के बाहर जाते देखा, इन्हें शायद नहीं पता था कि हम झरने पर गये थे। मैं बिना क्षण गवाएँ उनके पीछे गई थी और मेरे साथ अक्षया भी। मैंने बहुत पुकारा परंतु इन्होंने सुना नहीं। वो दृष्टि से ओझल हो गये थे तो हमने उनका पीछा किया और हमने उन्हें पकड़ भी लिया
*
अंबिका रुको।” रूपसी की आवाज सुनकर अंबिका एकदम चौंक गयी थी क्योंकि रूपसी के अचानक वहाँ आने की आशा उसे नहीं थी
अंबिका कहाँ जा रही हो? मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम वास्तव में माता अजरा की आज्ञा का उलंघन कर रही हो।” उन्हे देखकर तीनों एक बार घबरा गई थी
रूपसी, हम अधिक दूर नहीं जा रहे थे बस यहीं कुछ दूर से वापस आने वाले थे।” वाशवी बीच में बोली
“तुम तो चुप रहो, तुम पर तो हमें कभी भरोसा ही नहीं था।” रूपसी का गुस्सा देख वाशवी एक कदम पीछे हट गई। “हम अगर माता अजरा को बताएंगे तो वो बहुत गुस्सा होंगी।”
रूपसी, क्या हासिल होगा तुम्हें यह करकेतुम हमें सब लोगों के सामने लज्जित करोगी।” ईशानी ने कहा था
अगर तुम्हारे भले के लिए यह आवश्यक हुआ तो हम यह करेंगे। इससे पहले कि तुम्हारी नादानी तुम्हें कुछ और ही सबक ना सीखा दे।”
रूपसी, छोड़ो भी।” अंबिका इस बार बोली। “हम चुड़ैलें हैं, हमें अपनी सुरक्षा करनी आती है। माता अजरा को बस यही एक चिंता है ना कि हमें कोई नुकसान ना पहुँचे तो हम उसका ध्यान रखते हैं। हर माँ अपने बच्चों की चिंता करती है परंतु हम अब बच्चे नहीं रहे… हमें तो ऐसा नहीं लगताक्या तुम्हें लगता है?”
हम बच्चे नहीं हैं परंतु वो हमसे अधिक बुद्धिमान और अनुभवी हैं। अगर वो नहीं चाहते तो हमें नहीं जाना चाहिए।”
वो तो झरने के पास भी आने से माना करते हैं, क्या तुम यहाँ तक उनसे आज्ञा लेकर आई हो?” ईशानी ने अंबिका का साथ देते हुए कहा
यह हमारी सीमारेखा में हैहमने इससे आगे जाने का कभी नहीं सोचा।”
क्योंकि तुम डरती हो आगे जाने से, तुम्हें स्वयं पर भरोसा नहीं।” अंबिका बोली
यह तुम बहुत अच्छे से जानती हो कि मुझे डर लगता है या नहीं। रही बात भरोसे की तो जब अवसर आएगा तो यह भी तुम्हें पता चल जाएगातुम मुझे भ्रमित करके बच निकलने का प्रयत्न मत करो।”
तो प्रतीक्षा किस बात की है? अगर स्वयं पर इतना विश्वास है तो बढ़ा के दिखाओ अपने कदम हमारे साथ। कर दो स्वतंत्र अपने आप को हर बंधन से और छू के देखो इस अनंत आकाश को, जहाँ कोई सीमा नहीं।”
मुझे नहीं लगता कि हम किसी बंधन में हैं। यह हमारा अपना विधारा हैजो स्वयं अपने आप में इतना बड़ा कि इससे बाहर जाने की हमें आवश्यकता ही नहीं है। और इससे अधिक स्वतंत्रता की हमें अभी आवश्यकता भी नहीं है।”
“रूपसी, कितना भी बड़ा है विधारा परंतु इसका अंत बहुत निकट है। मन को समझाना अलग बात है परंतु सब बंधनों से मुक्त हो आकाश में जब अनंत तक जाने की स्वतंत्रता हो तब पंख फैला के हवा को चीर के आगे बढ़ने में जो आनंद मिलता है वह यहाँ विधारा में... कभी नहीं रुपसी। जिस अनुभव को तुमने कभी महसूस ही नहीं किया उसके बारे में तुम कुछ ना कहो तो ही ठीक है, विधारा में उसे कभी प्राप्त नहीं कर सकती हो तुम।” अंबिका ने कहा
रूपसी क्या सोच रही हो? हम चुड़ैलों को किसी भी संकट से डरने की आवश्यकता नहीं है। अगर संकट है भी तो धरती पर होगा और हम तो खुले आकाश में होंगी जहाँ से हम नीचे सब देख सकते हैं। यह तसल्ली करने के बाद कि नीचे कहीं कोई मनुष्य नहीं है हम धरती पर भी उतर सकते हैं। और यह मत भूलो कि हम चुड़ैलें हैं, मनुष्यों की हमसे कोई तुलना नहीं।” ईशानी ने कहा
अंबिका, माता अजरा को हमारा विधारा की सीमा से बाहर निकलना बिल्कुल भी पसंद नहीं आएगा।” रुपसी का मन अब उनकी बातों से डगमगाने लगा था।
उन्हें कौन बताएगाहम तो नहीं बताएंगेक्या तुम...?” अंबिका उसके आँखों में देखने लगी
रूपसी ने अक्षया की ओर देखा। “मुझे मत देखोतुम तय करो क्या करना है।” अक्षया ने कहा
इसकी ओर क्या देख रही होयह कोई दूध की धुली नहीं है। ये तो कई बार जा चुकी है विधारा से बाहर
अक्षया… तुम भी…?” रूपसी अचंभित थी यह सुनकर
रूपसी छोड़ो उसेइधर देखोकुछ भी गलत नहीं है। अगर है तो तुम यह गलती पहले ही कर चुकी हो।” रूपसी को उसकी बात समझ नहीं आई, उसने अंबिका को घूर के देखा
हाँ रूपसीध्यान से देखो तुम विधारा की सीमा के बाहर खड़ी हो।” यह सच था। रूपसी ने अपने चारों ओर देखावह अंबिका का पीछा करते हुए विधारा की सीमा के बाहर आ चुकी थी और उसे इसका पता भी नहीं चला था
जब गलती कर ही चुकी हो तो इसे हो जाने दो। अब आगे बढ़ कर देखो कि यह गलती होनी चाहिए थी या नहीं।”
रूपसी ने एक बार पीछे मुड़ कर देखा और अंबिका की बात पर सोचने लगी। अंततः रूपसी ने सहमति में सर हिला दिया। उसकी हाँ जानकर ईशानी ने अंबिका की ओर देखादोनों ने चैन की साँस ली यह जानकार कि अब रूपसी अजरा को नहीं बताएगी
परंतु वचन दो हम अधिक दूर नहीं जाएंगे और शीघ्र लौट कर आएंगे।”
तुम चिंता मत करो, चलो हमारे साथ।” अंबिका कहकर तुरंत हवा में उड़ गई और उसके पीछे वाशवीईशानी भी
रूपसी ने एक बार फिर अक्षया की ओर देखावह मुसकुराई और इशारे में ही जैसे कहा। चलो यह करते हैं जो होगा देख लेंगे।” जवाब में अक्षया भी मुसकुरा दी और अगले ही क्षण दोनों खुले आकाश में थी
विधारा का कोना-कोना रूपसी ने देखा था। इतने वर्षों में विधारा के हर हिस्से से उसकी पहचान हो चुकी थी परंतु आज कुछ नया था। यह आकाश नया थायह हवा नई थी और सामने धरती का फैलाव भी नया था। रूपसी को इस क्षण कुछ भी याद नहीं था कि वह कुछ समय पहले इसी का विरोध कर रही थी उसने पंखों को फुर्ती से चला के अपनी गति बढ़ाई और सबसे आगे आ गई। उसके चेहरे पर उमंग से भरी मुस्कुराहट उभर आई थी जिसे देख अंबिकावाशवी और ईशानी मन ही मन अचंभा कर रही थी
रूपसी कहाँ तक जाने की मंशा है, धरती पर उतरने का मन नहीं है क्या?” ईशानी ने झिझकते हुए पूछा
रूपसी ने पलट कर देखा तो उसकी आँखों में स्वीकृति और चेहरे पर यह करने की ललक दिखाई दे रही थी। बिना रुके रूपसी ने नीचे की ओर गोता लगा दिया और उसके पीछे बाकी सब भी धरती की ओर आने लगी। थोड़ी देर में सब धरती पर आ गयी थी
वो वहाँ दूर उँचाई पर क्या है?” रूपसी ने एक ओर इशारा करते हुए पूछा
कहाँ पर रूपसी?” वाशवी ने उसकी दृष्टि का पीछा करते हुए पूछावह बहुत दूरी पर झरने के पास बने एक आश्रम की ओर इशारा कर रही थी। “अच्छा वहपक्का नहीं मालूम परंतु सुना है कि वह महायोद्धा शौर्य का आश्रम है।” वाशवी ने जवाब दिया
महायोद्धा शौर्य का आश्रम?” अक्षया भी थोड़ा चौंक गई थी
हाँपरंतु इसमें आश्चर्य की क्या बात है?”
नहीं बस मैंने कभी देखा नहीं उन्हेंऔर मुझे नहीं पता था कि वो लोग विधारा के इतने समीप रहते हैं। चलो ना वहाँ चलते हैं।”
“बावली मत बनो अक्षयाहम आश्रम के आस पास भी नहीं जाएंगे।”
हम दूर से ही देखेंगे।”
अक्षया, बच्चों की भाँति हठ मत करो, हमें किसी कि दृष्टि में आए बिना वापस जाना है।” रूपसी ने कहा तो अक्षया ने मुंह बना लिया
थोड़ी देर बाद...
अंबिका कहाँ चली गई?” अंबिका को वहाँ ना पाकर रूपसी थोड़ा घबरा गई
तुम घबरा क्यों रही होवह आ जाएगी। वह तो सदा ही इस प्रकार करती है।”
“हमें बहुत देर हो चुकी है, हमें अब लौटना चाहिए। तुम रुको यहीं, मैं उसे ढूँढती हूँ।” कहकर रुपसी एक दिशा में चली गई।
 “अंबिकाकहाँ हो तुमअंबिका,” रूपसी पुकारते हुए बहुत आगे आ गई थी
आगे बढ़ती हुई रूपसी को थोड़ा भी अंदेशा नहीं था कि वहाँ वह अकेली नहीं थी। उसके आस पास कई सैनिक घात लगा के बैठे थे और वो रूपसी के उनके सही निशाने में आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। छुपते हुए वो सैनिक रूपसी के समीप आ रहे थे उन्हें नेतृत्व करने वाला वह सेना नायक इस अवसर को हाथ से गँवाना नहीं चाहता था इसलिए रूपसी पर झपटने से पहले वह उसके काबू में आने की संभावना को मजबूत कर लेना चाहता था
गे बढ़ते हुए रूपसी को थोड़ा संदेह हुआ क्योंकि आसपास मानव गंध मौजूद थी। रूपसी इससे परिचित नहीं थी परंतु चुड़ैल होने के कारण इस बिल्कुल अलग सी गंध ने उसे सचेत कर दिया था। उसने वापस मुड़ना चाहा परंतु इसी क्षण इशारा मिलते ही सभी सैनिक बाहर निकल आए। रूपसी अचानक उन्हें देख घबरा गई क्योंकि सब ने रूपसी को निशाना बनाकर तीर ताने हुए थे। अचानक अपने आप को ऐसी स्थिति में पाकर रुपसी घबरा गई थी।
“रुक जाओभागने का प्रयत्न भी मत करना।” उन सिपाहियों के नायक तारकेन्दु ने चेतावनी देते हुए कहा
रूपसी ने देखावह चारों ओर से घिरी हुई और सब के निशाने में थी। तब भी वहाँ से भागने के लिए वह अपने चुड़ैल रूप में आने लगी थी
नहींऐसा मत करो।” तारकेन्दु ने दुबारा उसे कहा। “चुपचाप अपने आप को मेरे हवाले कर दोअगर जीवित रहना चाहती हो तो।”
जैसा रूपसी ने सोचाअगर वह उड़ने का प्रयास करती तो उनके तीरों का शिकार होने की संभावना बहुत अधिक थीइसलिए वह उनकी पहुँच से बाहर निकलने के लिए पेड़ो की ओट में पैदल ही एक ओर भागी। चेतावनी का कोई प्रभाव ना होता देख तारकेन्दु बौखला गया था
पकड़ो इसे,” तारकेन्दु भी उसके पीछे दौड़ा। “यह मुझे जीवित चाहिए।”
सभी उसका पीछा कर रहे थे परंतु रूपसी उनसे कहीं अधिक तेज थी। शीघ्र ही उनकी पहुँच से बाहर आकर वह आकाश की ओर उड़ने लगी। परंतु शिकारी केवल उसके पीछे ही नहीं थे, वहाँ सामने भी घात लगाए बैठे थे। उड़ती हुई रूपसी को निशाना बनाकर एक बाण धनुष से निकाला और रूपसी के कंधे में जा लगा। रुपसी अपना संतुलन खोने लगी परंतु उसने किसी प्रकार अपने गिरते हुए शरीर को पूरी शक्ति से उठा लिया। वह वापस उस हमलावर सैनिक की ओर लहराई और उसे दूसरा तीर चलाने से पहले ही पकड़ कर दूर उछाल दिया। तारकेन्दु और दूसरे सैनिक भी इसी समय वहाँ पहुँच गये थे परंतु उनके देखते ही देखते रुपसी वहाँ से निकल भागी।
पीछा करो उसका मूर्खों।” तारकेन्दु अपने सैनिकों पर बरसने लगा। “ढूंढो उसेवह अधिक दूर तक नहीं जा सकती।”
थोड़े ही समय में रूपसी को यह समझ आ गया था कि उस तीर में कोई विष था क्योंकि उसका सर घूमने लगा था। उसे अब थोड़ा भी दिशा ज्ञान नहीं था कि वह कहाँ और किस दिशा में जा रही है? वह बस अपने प्राण बचा के भाग रही थी। उसे मूर्छा आने लगी थी और उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा रहा था। अब वह और आगे नहीं उड़ सकती थीगिरते हुए उसने किसी प्रकार अपना संतुलन बनाए रखा और पेड़ की टहनियों से टकराती हुई वह धरती पर आ गिरी। वह एक चट्टान की ओट में छुप गई और अपनी चेतना को संभालने का प्रयत्न करने लगी, उसे लगा था शायद विष का प्रभाव कुछ देर में कम हो जाएगा।”
रूपसी इतना कहकर चुप हो गई
उसके बाद?” सुरैया ने पूछा।
उसके बाद का तो आप सब जानती हैं ना मां? महायोद्धा शौर्य का एक शिष्य वेग बीच में आ गया। मैं तो उसे भी शत्रु ही मान बैठी थी परंतु जब उसने उनकी पिटाई की, मुख्य रूप से उस नायक तारकेन्दु कीमुझे अधिक चेत नहीं था परंतु फिर भी याद हैआनंद आ गया था।”
तो ये तुम्हारा मजेदार किस्सा था?”
क्यों तुम्हें पसंद नहीं आया?”
“अगर ये घाव ना होते तुम्हारे शरीर पर तो एक चमात लगाती की तुम्हारी बुद्धि जो राह भटक चुकी है ना, सीधी दिशा में लौट आती। एक ही दिन में दो बार मृत्यु के मुँह से लौट कर आई हो और पूछती हो, आनंद आया क्या? कुछ हो जाता तुम्हें तो?”
ओ मांकुछ हुआ तो नहीं ना।”

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