युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक
नियम पाठ - भाग 1
“माता अजरा, आपने हम लोगों
को बुलाया?” अंबिका के साथ अक्षया
ईशानी और वाशवी भी थी, सब के चेहरे से घबराहट साफ झलक रही थी क्योंकि उन्हें पता
था उन्हें क्यों बुलाया गया है।
“हम तुम लोगों को बार-बार
यह समझा चुके हैं कि मनुष्यों से दूर रहो परंतु तुमने हमारी कभी नहीं सुनी, अंततः आज उसका परिणाम देख
लिया ना तुम लोगों ने।” अजरा उन पर बरस पड़ी थी।
“माता अजरा, जैसा आपने कहा
हम तो कभी भी मनुष्यों के बसेरे की
ओर...” वाशवी बोल ही रही थी कि अजरा ने उसे चुप कर दिया।
“चुप रहो वाशवी, तुम भली भाँति जानते हो हमारे कहने
का क्या अर्थ था? तुम लोगों की मूर्खता के कारण रूपसी के प्राण जा सकते थे। तुम्हें विधारा से बाहर जाने की
आवश्यकता ही क्या है? क्या हासिल होता है
तुम्हें मनुष्यों की दुनिया में जाकर?” अजरा का गुस्सा देख वाशवी ने एक कदम पीछे कर
लिया।
“हमसे भूल हुई है माता अजरा।” अक्षया ने कहा जो अब
तक पलकें नीचे करके खड़ी थी।
“हमें तुम से या रूपसी से
तो यह अपेक्षा कभी नहीं थी। कब से यह छुपा-छुपी का खेल खेला जा रहा है?”
“वो... माता अजरा मैं और रूपसी
पहले कभी नहीं गये।” अक्षया बोली।
“पकड़े जाने पर यही सबसे
पहला बहाना होता है।”
“सच माता अजरा, हम नहीं
जाना चाहते थे, वो अंबिका ने जब रूपसी से
कहा कि…” वह अंबिका की ओर देखने लगी, वह थोड़ा रुकी यह सोचकर कि
इससे आगे बताना शायद अंबिका को पसंद नहीं आएगा।
“क्या कहा अंबिका ने?” अजरा चौंक कर उस की ओर
पलटी। “बताओ क्या कहा अंबिका ने।” अक्षया, अंबिका को देखे जा
रही थी।
“तुम उसे क्या देख रही हो? मुझे जवाब दो अक्षया।” अजरा ने इस बार उँचे स्वर में पूछा तो अक्षया
झट से बोलने लगी।
“मैं और रूपसी झरने पर गये
थे, तापी नदी के झरने पर।”
अंबिका को अक्षया का आधा सच बताना पसंद नहीं आ रहा था।
“वह जो हमारी पश्चिम सीमा
के एकदम अंतिम छोर पर है?”
अजरा ने पूछा।
“हाँ माता अजरा, वही।”
“आगे बताओ।”
“वहीं पर हमने अंबिका, वाशवी और ईशानी
को सीमा के बाहर जाते देखा। हमने पुकारा परंतु इन्होंने सुना नहीं। तब रूपसी ने और मैंने इनका
पीछा किया तो हम भी
अंजाने में सीमा के बाहर चले गये। अंबिका ने कहा कि अब जब
बाहर आ ही गई हो तो थोड़ा और आगे सही।” अंबिका अक्षया की ओर गुस्से से देख रही थी। “इसने कहा था कि हम अब
बच्ची नहीं रही, कुछ नहीं होगा।” इतना कहकर अक्षया चुप हो
गई।
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