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अध्याय 16 - महारथी विराट - भाग 1

युगान्धर-भूमि ग्रहण की दस्तक महारथी विराट 1/5 “ प्रणाम महारथी विराट ।”  वेग ने कक्ष में प्रवेश करते के साथ ही कहा तो विर...

अध्याय 1 - अंतिम पहर

युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक



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This book or any portion thereof may not be reproduced or used in any manner whatsoever without permission except for the use of brief quotations in a book review. This book is a work of fiction. The characters and events portrayed in this book are fictitious. Any similarity to real persons, living or dead is coincidental and not intentional by the authors.



युगांधर-भूमि


अनंत तक फैले इस ब्रह्मांड के किसी हिस्से में एक गृह है पृथ्वी। करोड़ो वर्षों के विकासक्रम के बाद, समय के इस काल में जो जीवन के अनुकूल हो सकी। जहाँ जीवों की लाखों प्रजातियाँ को सदियों से शरण मिली है। सदियों से यहाँ सूक्ष्म और विशाल दोनों रूपों में जीवन का आगमन और प्रस्थान जारी है। सबके गुण अलग, प्रकर्ती अलग और क्षमताएँ भी अलग। किंतु जो है या जो नहीं है, उसे जानने की क्षमता यहाँ केवल मानव में है। गणना, तुलना, विश्लेषण और परिणामों का आंकलन करने की क्षमता के साथ मानव जाती में बहुत से ऐसे गुण हुए जो अन्य जीवों में नहीं हैं। बावजूद इसके पृथ्वी पर महत्वहीन कोई नहीं सबका विशेष महत्व है। यह एक कथा भी मानव द्वारा लिखी जा रही और इसे पढ़ने की क्षमता भी मानव में ही है। इन विशेष क्षमताओं के साथ मानव जाती को विशेष दायित्व भी मिला जिसे पिछले कालखण्डो में मानव ने कभी तो अच्छे से निभाया और कई बार वह असफल भी रहा। जब कभी श्रेस्ठ होने के अभिमान ने मानव की बुद्धि को दूषित किया वहाँ क्रोध, ईर्ष्या और स्वार्थ ने अपना वर्चस्व स्थापित किया तो मानवजाति ने इसके गंभीर परिणाम भी भुगते। संकट बहुत आए लेकिन हरबार संकटकाल से मानवजाति बाहर आ सकी इसका प्रमाण स्वयं पाठक है जो यह कथा पढ़ रहा है।
लेकिन क्या यह इतना सरल था?
संसार के लगभग सभी भागों में भिन्न भिन्न समयकाल की अनेकों गाथाएँ व लोककथाएँ हैं, जिनमें कुछ महामानवों की चर्चा अवश्य है। जिनके कठिन और अथक प्रयासों के कारण ही इस धरती पर मानवजाती का अस्तीव आज तक है। कभी इन्हें रक्षक कहा गया तो कभी संहारक, कहीं इन्हे देवताओं की सन्ज्ञा दी गई है तो कहीं इन्हे ईश्वरीय अवतार माना गया है। यह बस कुछ नाम हैं उन नामों में से जो उन्हें अलग-अलग युगों में मिलते रहे हैं। मानव जाति के विशाल परंतु भूले और बिखरे से इतिहास में कुछ महामानवों को ही केवल उचित स्थान मिला लेकिन अधिकांश तो समय के चोट खाकर इतिहास के पन्नो के साथ ही विलुप्त हो गये। कुछ पुराने पन्नो को जोड़कर लिखी गई यह गाथा भी इन्हीं महामानवो की है जिन्होने हमारे अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने प्राणों की तो कभी अंश मात्र भी परवाह नहीं की। धरती पर जीवन को सींचते रहना ही जिनका परम स्वार्थ रहा। अपने क्रतव्य मार्ग पर कितने ही महामानव मृत्यु को भेंट चढ़ गये परंतु संसार इनके बलिदान को प्रायः भूल जाता है।
“युगांधर,” इनके लिए सार्थक नाम इसलिए है क्योंकि ये महामानव युगों की धुरी थे। एक युग को विनाश के जबड़ों से निकाल कर लाने वाले ये युगंधार इसी भूमि पर जन्मे और आज के हमारे वर्तमान को इन्होने तब अपने त्याग, बलिदान और समर्पण से सिंचा था। जहाँ आज बसते हैं हम यही वो भूमि है "युगंधार भूमि"

अध्याय 1 - अंतिम पहर



आबादी से बहुत दूर और घने जंगलों के पार हरे-हरे मैदानों से कुछ उँचाई पर एक आश्रम। तापी नदी के उद्गम के पास होने से इसको तापिश्रम भी कहा जाता है। जहाँ गुरु शौर्य अपने कुछ शिष्यों को कई वर्षों से शिक्षा दे रहें है। मेघ, विधुत, प्रताप, दुष्यंत और वेग इनके पाँच शिष्य हैं । परन्तु ये कोई साधारण शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु शौर्य के पास नहीं हैं, इन सभी ने अपना जीवन एक विशेष उद्देश्य को समर्पित किया है। आने वाले समय में शौर्य के इन्ही पाँच शिष्यों को मानव जाती के मध्य एक समन्वयक की भूमिका प्रदान करनी है। वर्तमान में स्वयं गुरु शौर्य पाँच समन्वयक में से एक हैं। और उसी समन्वयक परंपरा की अगली पीढ़ी को इस आश्रम में तैयार किया जा रहा है। समन्वयक होना एक असाधारण दायित्व है, इसलिए प्रथम तो उपयुक्त शिष्य का चुनाव ही बहुत महत्वपूर्ण है। उसके बाद बालकपन से ही विशेष शारीरिक अभ्यासों और कठिन समर्पित साधनाओं द्वारा मानव शरीर की उन क्षमताओं को विकसित किया जाता है जिनके विषय में साधारणतः सोचा भी नहीं जा सकता।
शिक्षा पूरी होने तक इन पाँचों की दुनिया यहीं तक सीमित रही है। बाहरी दुनिया से यहाँ का संपर्क बहुत ही कम रहा है परंतु शिक्षा के इस चरण में गुरु शौर्य अब इनको बाहर की दुनिया के संपर्क में भी प्रायः ले जाते हैं। यह भी इनकी शिक्षा का एक भाग है। एक उत्तम समन्वयक होने के लिए बलवान, उर्जावान और बुद्धिवान होना ही पर्याप्त नहीं है, उनका सामाजिक होना भी उतना ही आवश्यक है। भविष्य में क्योंकि इनको समाज में उपस्थित रहते हुए ही अपने कर्तव्य का पालन करना है। शौर्य के कुछ विशेष सूत्रों ने इस कठिन शिक्षा को भी आनंदमय बना दिया था जिस कारण इनके शिष्यों को यह शिक्षा कभी भी भारी नहीं जान पड़ी।  यहाँ अच्छाई के लिए पाँच नये स्तंभ तैयार हो चुके थे तो वहीं दूसरी ओर बुराई भी अपने लिए रास्ते खोज रही थी।
*
आश्रम से बहुत दूर उदीष्ठा की राजधानी सूर्यनगरी, रात के इस पहर में लगभग सोई हुई थी परन्तु उसकी सीमा पर अभी भी कुछ गतिविधि थी जो गश्ती सिपाहियों की नहीं लग रही थी। रात के अंधेरे में नगर से थोड़ा बाहर वह व्यक्ति बहुत ही व्याकुल हो किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। सन्नाटे में कुछ झींगुरों का शोर केवल गूँज रहा था, रोशनी अधिक नहीं थी फिर भी तारो की झिलमिलाहट में उस व्यक्ति के काले आवरण के भीतर से राजसी वेशभूषा दिखाई दे रही थी जिससे यह तो स्पष्ट था कि उसका यहाँ अकेले खड़े होना कुछ असामान्य था। दाढ़ी मूछ आधी से कुछ अधिक सफेद, पचास से पचपन वर्ष की आयु, उसकी आँखें किसी को ढूँढ रही थी। साथ ही साथ वह अपने चारों और देख कर इस बात की तसल्ली भी कर रहा था कि कोई उसे देख ना रहा हो। उसके चेहरे पर झल्लाहट बढ़ती जा रही थी कि तभी उसे कुछ दूरी पर एक परछाई अपने समीप आती हुई दिखाई दी। उसने अपने आप को एक वृक्ष की ओट में कर लिया और उस परछाई को छुपकर पहचानने का प्रयत्न करने लगा। काले वस्त्र ओढ़े हुए वह आगंतुक अब बहुत निकट आ चुका था। सामान्य से कुछ अधिक कद, भारी लेकिन गठीली काया, यह वही था जिस की प्रतीक्षा वह राजसी वेशभूषा वाला व्यक्ति कर रहा था। थोड़ा क्रोधित होकर वह उसके सामने आ गया।
“क्या तुम्हें तनिक भी अहसास है कि मेरा यहाँ इस समय आना कितना हानिकारक हो सकता है? मेरे लिए, तुम्हारे लिए और साथ में तुम्हारे उद्देश्य के लिए भी।”राजसी वेशभूषा वाला वह व्यक्ति क्रोधित हो रहा था। “तुम्हें शायद अपनी चिंता नहीं है परन्तु मुझे अपने लिए इस प्रकार के जोखिम उठाने का थोड़ा भी चाव नहीं है ।”
“अभी इस प्रकार चिल्ला कर क्या तुम अपने लिए संकट नहीं बुला रहे हो अग्निवेश? शांत हो जाओ, अकारण मुझे भी जोखिम से खेलना पसंद नहीं है।”उस आने वाले व्यक्ति की बात से अग्निवेश को अहसास हुआ कि वास्तव में उसका स्वर क्रोध के कारण ऊँचा हो गया था, वह थोड़ा झेंप सा गया।
“तुम्हारे लिए जो मैं कर सकता था वह मैंने कर दिया है भुजंग, आगे का काम अब तुम संभालो। इस प्रकार बार-बार मिलने के लिए बुलाकर क्यों जोखिम को निमंत्रण दे रहे हो?” अग्निवेश आने वाले व्यक्ति पर क्रोधित हो रहा था।
“तुम्हारा काम अभी अधूरा है अग्निवेश,” उस व्यक्ति को भी अग्निवेश की बात पर थोड़ा क्रोध आ गया था। “किस उद्देश्य की बात कर रहे थे तुम अभी, क्या इसमें तुम्हारा स्वार्थ नहीं? यह मत भूलो कि तुम मेरे या किसी और के लिए यह संकट मोल नहीं ले रहे हो। अगर तुम्हें कुछ प्राप्त करना है तो थोड़ा तो जोखिम तुम्हें भी उठाना होगा।”
“परन्तु क्यों भुजंग? अब जब मैंने वहाँ तुम्हारे प्रवेश की स्थाई व्यवस्था कर दी है, तुम वहाँ निश्चिंत होकर आ जा सकते हो, उसके बाद तुम्हें अब मुझसे क्या चाहिए? किस बात की प्रतीक्षा है अब तुम्हें? जैसा कि तुमने कहा था एक बार वहाँ प्रवेश मिलने के बाद "भीषण" को मुक्त तुम स्वयं करवा लोगे। मेरा काम हुआ फिर व्यर्थ ही मुझे बार-बार संकट में क्यों डाल रहे हो?” अग्निवेश अभी भी नाराजगी से पूछ रहा था।
“तुम्हारा काम अभी समाप्त नहीं हुआ है। उस बंदीगृह के अंदर के सुरक्षा घेरे को तो मैं तोड़ सकता हूँ परन्तु वह तिलिस्म जिसके अंदर मेरे स्वामी को बंदी बना कर डाला गया है, उसका तोड़ क्या है?” भुजंग भी आवेश में आ गया था, वह अग्निवेश के समीप आने लगा। “तुमने मुझे ऐसा कुछ पहले क्यों नहीं बताया?”
“ओ...ओ... देखो भुजंग, ऐसा तो हमारे अनुबंध में कहीं तय नहीं हुआ था।” अग्निवेश पीछे हटते हुए बोला।” मेरा काम केवल तुम्हें रास्ता दिखाने का था, रही बात वह तिलिस्म तो मुझे लगा यह तुम्हारे लिए कोई जटिल विषय नहीं होगा।”
“कोई बच्चों का खिलौना नहीं है जिसे चुटकी मे तोड़ दिया जाए, वह एक तिलिस्म है।” भुजंग ने आगे बढ़कर अग्निवेश को गले से पकड़ लिया था। “बिना उस तिलिष्म को जाने हमला करने का अर्थ है सीधे मृत्यु को गले लगाना, मुझे तुम उस तिलिस्म का रहस्य बताओ।”
“देखो मेरी बात सुनो, मैं कुछ नहीं जानता इस बारे में।” अब अग्निवेश का सुर मंदा पद चुका था। “मैं सच कह रहा हूँ मुझे भी बस इतना मालूम है कि भीषण किसी काले जादू या शायद तिलिस्मी घेरे में बंद है परन्तु वह तिलिस्म क्या है, किसने बनाया है और कैसे बनाया है? इसके बारे मैं कुछ नहीं जानता। इस विषय में मैं तुम्हारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकता हूँ।”
“तुम उदीष्ठा के इतने बड़े मंत्री हो और तुम कह रहे हो कि तुम्हें कुछ नहीं पता।” भुजंग ने अपनी पकड़ ढीली कर दी। “अगर तुम नहीं जानते तो फिर कौन जानता है?”
“देखो यही सच है। भले ही मैं इस राष्ट्र का महामंत्री हूँ परंतु मैं सच कह रहा हूँ, भीषण के कारावास के बारे में हर बात गुप्त रखी गई है। संसार को तो यह भी नहीं मालूम कि भीषण जीवित है। ”अग्निवेश ने अपनी विवशता बताई।
“अगर तुम नहीं तो फिर कौन जानता है उस तिलिस्म के बारे में?” अग्निवेश की बात ने भुजंग को विचलित कर दिया था, उसने अग्निवेश का गला अब छोड़ दिया था। “उस तिलिस्म को कैसे तोड़ा जा सकता है यह कोई तो जानता होगा...”
“यह तिलिस्म शौर्य की निगरानी में बनाया गया था और उनके अलावा महाराज बाहुबल ही केवल इस बारे में जानते हैं। अगर तुम चाहो तो... तो उनसे यह रहस्य जानने का प्रयत्न कर सकते हो।” अग्निवेश ने कहा।
“तुम्हे इस घड़ी हास्य सूझ रहा है।” भुजंग उसके पास आकर बोला, उसकी आँखें क्रोध से लाल थी। “मैं अपने लक्ष्य के इतने समीप होकर और प्रतीक्षा नहीं कर सकता। मुझे किसी भी कीमत पर उस तिलिस्म का तोड़ चाहिए और जब तक मुझे वह नहीं मिल जाता मैं तुम्हें भी चैन से नहीं बैठने दूंगा।”
“जब तुम यह जानते हो कि उनसे यह जानना असंभव है फिर मुझसे तुम इस प्रकार की आशा कैसे कर सकते हो?” अग्निवेश भी नाराजगी से बोला। “जितना मुझसे बन सकता था वो मैंने तुम्हारे लिए किया है, अब इससे आगे मैं विवश हूँ।”
“तो क्या अब तक किए गये मेरे सब प्रयास व्यर्थ? मैं क्या वापस लौट जाऊं?”
“मेरा यह अर्थ बिल्कुल नहीं था।”
“एक बात सुन लो अग्निवेश, अपने लक्ष्य के इतने समीप आकर अब मुझे पराजय स्वीकार नहीं। अगर ऐसा हुआ तो मैं तुम्हें...”
“जरा रुको... हाँ... एक उपाय है,” तभी अग्निवेश को कुछ स्मरण हुआ, उसकी आँखों में चमक आ गई थी। “हाँ एक रास्ता है सब कुछ पता लगाने का, वह स्त्री, हाँ वो स्त्री अवश्य हमें कुछ बता सकती है ।”
“कौन स्त्री? जल्दी बताओ मुझे।”भुजंग को भी कुछ आशा दिखी।
“जरा ठहरो, तुम कुछ पूछो उससे पहले मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उसका नाम क्या है और वो कहाँ रहती है? यह मैं नहीं जानता, यह तुम्हें स्वयं ही पता लगाना होगा।”
“तुम जो जानते हो वह बताओ पहले।”
“देखो एक स्त्री मुझे स्मरण है, जिस समय भीषण को कारावास में डाला जा रहा था वह भी थी वहाँ। कोई और नहीं परन्तु वह थी… मुझे विश्वास है वह अवश्य कुछ जानती होगी इस बारे में।”
“और क्या जानते हो? बोलो जल्दी।”
“मैंने बताया ना कि मैं विशेष कुछ नहीं जानता इस बारे में, हाँ वह आकर्षक थी और थोड़ी विचित्र भी थी, इसके अलावा...” अग्निवेश मौन हो गया इतना कहकर।
“वाह, बहुत- बहुत धन्यवाद तुम्हारी इस सहायता के लिए। तुम कह रहे हो कि मैं किसी दीये के सहारे पूरे संसार में एक स्त्री को खोजूँ जिसका कि मैं नाम तक भी नहीं जानता।”
“भुजंग, तुम भी कुछ करो, मैं भी प्रयास करता रहूँगा।”
भुजंग ने चिड़ कर कहा। “राजा बाहुबल के मंत्री होकर भी आज तक कुछ नहीं जान पाए तुम। मैं पता लगाने का प्रयास करता हूँ परन्तु तुम आराम से मत बैठना, कुछ भी जानकारी हासिल हो मुझे सूचना कर देना।”
 अग्निवेश ने हाँ में सर हिलाया।
 “राजा बाहुबल के नाई बन जाओ तो शायद मेरे कुछ काम आ सको।” यह कहकर भुजंग फिर से उसी अंधेरे में गुम हो गया जहाँ से निकल कर वो आया था, पीछे खड़ा अग्निवेश उसे जाता हुआ देख रहा था और शायद उसके अंतिम वाक्य के बारे में सोच रहा था। अचानक उसे आभास हुआ कि वो अभी तक वहीं खड़ा है, उसने इधर उधर एक क्षण के लिए देखा और फिर अपने रास्ते की और बढ़ चला।

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-09-2015) को "हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-2098) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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